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जानवर (प्रेरक लघुकथाएं)

वह एक कुशल प्रशासक थीं. हर दफ्तर में अपने कामकाज और व्यवहार की नहीं, उन्होंने अपने ‘सफाई-पसंद’ होने की अमिट छाप ज़रूर छोड़ी. जहाँ-जहाँ वह पदस्थापित रहीं, दफ्तर के बाबू और अफसर, सब, रोजमर्रा सरकारी कामकाज की बजाय, साबुनों- डिटर्जेंटों और फिनाइल के प्रकारों, पौंछा लगाने की सही तकनीकों, डस्टर की सही-आकृति, कूड़ेदानों की स्थिति, शौचालय की टाइलों और फर्श की धुलाई वगैरह जैसे गंभीर-विषयों की ही चर्चा किया करते थे. कलफ़ लगे साफ़े में एक चपरासी, उनके पीछे-पीछे, एक डस्टबिन लिए चलता था. मजाल क्या, जो एक भी चीज़ यहाँ-वहाँ बिखरी नज़र आ जाए! अगर फर्श पर माचिस की एक बुझी हुई सींक भी नज़र आ जाए तो वह बुरी तरह बिफर जातीं. शौचालय अगर हर दो घंटे बाद एसिड से साफ़ न किये जाएँ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता, रोज सबेरे नौ और शाम चार बजे, दफ्तर के सारे बाबुओं और अफसरों को अपने कमरे में बुला कर वह सफाई के महत्व को ले कर भाषण पिलातीं! एक दिन पता नहीं कहाँ से उन्होंने पढ़ लिया कि “सर्वश्रेष्ठ सफाई-व्यवस्था” के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था, ‘आई एस ओ’ प्रमाणपत्र देने वाली है!

मुकाबला बेहद बड़ा था-कड़ा भी, पर एक अखिल-भारतीय अँगरेज़ ‘आई. सी. एस.’ की तरह उन्होंने चुनौती को स्वीकारा. दफ्तर में आनन-फानन में नए सफाई-कार्मिकों की भर्ती की गयी और तभी से उनका सारा वक्त प्रतिभा और ध्यान इसी तरफ लग गया! शाम को देर तक घर न जातीं, देर रात तक पौंछा वालों की टीम के साथ दीर्घाओं, छतों और कमरों की झाड़ू-बुहारी करवाती रहतीं....पर लोग थे जैसे उन्हें अपने मकसद में कामयाब ही होने देना नहीं चाहते थे! कभी कोई गाँव वाला बीड़ी का ठूंठ फर्श पर फ़ेंक देता तो कभी कोई वकील, बस का पुराना टिकिट या माचिस की खाली डिब्बी! वह घटनास्थल पर भुनभुनाती आतीं और गांधीवादी तरीके से कचरा उठवा ले जातीं! पतझड़ का मौसम तो जैसे जान लेने को आमादा था....हवा के साथ टहनियों से टपके भूरे-पीले पत्ते गिरते रहते और यहाँ वहाँ उड़ते-फिरते. उन्हें ठिकाने लगाने के लिए वह साड़ी चढ़ा कर उनके पीछे दौड़तीं. एक बार तो उनकी तबीयत हुई कि सफाई का अनुशासन तोड़ने वाले सब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलवा दें, पर दफ्तर के बड़े बाबू ने उन्हें ऐसा न करने की राय दी क्यों कि सरकारी ‘वन-महोत्सव’ दस दिन बाद ही आने वाला था और तब हमें पेड़ों की ज़रूरत पड़ सकती थी.

मुआयने का दिन ज्यों ज्यों नज़दीक आता गया उनकी नींद-चैन-भूख गायब होती गयी. कभी आँख लगती, तो फर्श की टाइलों पर छूट गए अदृश्य धब्बे उन्हें झंझोड कर उठा देते!

आखिरकार सफाई के अंतर्राष्ट्रीय-विशेषज्ञ हमारे दफ्तर पहुँच ही गए. उन्होंने हर कोने का बड़ी बारीके से मुआयना किया था. हम सब बाबू लोग दम साधे अपनी अपनी सीटों पर बैठे ये सब देख ही रहे थे कि तीन जूनियर क्लर्कों ने, जो देर से पेशाब रोक कर बैठे थे, आ कर हमें बताया कि सब कुछ बेहद सफलता से निपट गया है, और अब कुछ देर बाद टीम ”मैडम” का इंटरव्यू करने उनके कमरे में जाएगी, जहाँ उन लोगों के लिए शानदार चाय-पार्टी का आयोजन रखा गया था.

‘सीधे दार्जिलिंग से मंगवाई गयी चाय’ बनवाने काम मुझे सौंपा गया था, इसलिए भागता हुआ मैं मैडम के कमरे की तरफ दौड़ा, ताकि उनके ‘नवीनतम निर्देश’ नोट कर लूं! मैंने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी और प्रविष्ट हो गया.

उनकी कुर्सी खाली थी, मैंने उनके रेस्टरूम की तरफ देखते हुए खंखारा, वह कहीं नहीं थीं- न वेटिंग-लाउंज में, न अपने कमरे के चमचमाते शौचालय में, उन्हें दफ्तर में हर जगह खोज कर हांफता-हांफता वापस पहुँचा तो उनके कमरे में फिनाइल की तेज गंध छाई हुई थी...और ये देख कर मैं जड़ हो ही गया कि मैडम की कुर्सी पर उनकी जगह पर ठीक उनकी लम्बाई की एक आदमकद सींक-झाडू बैठी थी!

उन्हीं की आवाज़ में मुझे डाँटते हुए झाडू बोली - “ऐसे क्या देख रहे हो-सुधीन्द्र! टीम कहाँ है? जाओ- पेंट्री में जा कर देखो- चाय कहीं ठंडी न हो गयी हो!”

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